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हफ़ीज़ बनारसी के चुनिंदा शेर

फूल अफ़्सुर्दा बुलबुलें ख़ामोश
फ़स्ल गुल आई है ख़िज़ाँ-बर-दोश


आसान नहीं मरहला-ए-तर्क-ए-वफ़ा भी
मुद्दत हुई हम इस को भुलाने में लगे हैं


वो बात ‘हफ़ीज़’ अब नहीं मिलती किसी शय में
जल्वों में कमी है कि निगाहों में कमी है


उस से बढ़ कर किया मिलेगा और इनआम-ए-जुनूँ
अब तो वो भी कह रहे हैं अपना दीवाना मुझे


इक हुस्न-ए-तसव्वुर है जो ज़ीस्त का साथी है
वो कोई भी मंज़िल हो हम लोग नहीं तन्हा


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By: Hafeez Banarasi

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