कहीं ये तर्क-ए-मोहब्बत की इब्तिदा तो नहीं
वो मुझ को याद कभी इस क़दर नहीं आए
हम को मंज़िल ने भी गुमराह किया
रास्ते निकले कई मंज़िल से
दिल में इक शोर सा उठा था कभी
फिर ये हंगामा उम्र भर ही रहा
तिरी तलाश में जब हम कभी निकलते हैं
इक अजनबी की तरह रास्ते बदलते हैं
तिरी तलाश है या तुझ से इज्तिनाब है ये
कि रोज़ एक नए रास्ते पे चलते हैं
ग़म-ए-ज़माना तिरी ज़ुल्मतें ही क्या कम थीं
कि बढ़ चले हैं अब इन गेसुओं के भी साए
ये दिलकशी कहाँ मिरी शाम-ओ-सहर में थी
दुनिया तिरी नज़र की बदौलत नज़र में है
ये तमीज़-ए-इश्क़-ओ-हवस नहीं है हक़ीक़तों से गुरेज़ है
जिन्हें इश्क़ से सरोकार है वो ज़रूर अहल-ए-हवस भी हैं
अब यही मेरे मशाग़िल रह गए
सोचना और जानिब-ए-दर देखना
नज़र से हद्द-ए-नज़र तक तमाम तारीकी
ये एहतिमाम है इक वा’दा-ए-सहर के लिए