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जावेद अख़्तर के चुनिंदा शेर

इस शहर में जीने के अंदाज़ निराले हैं
होंटों पे लतीफ़े हैं आवाज़ में छाले हैं


धुआँ जो कुछ घरों से उठ रहा है
न पूरे शहर पर छाए तो कहना


तब हम दोनों वक़्त चुरा कर लाते थे
अब मिलते हैं जब भी फ़ुर्सत होती है


मैं पा सका न कभी इस ख़लिश से छुटकारा
वो मुझ से जीत भी सकता था जाने क्यूँ हारा


मुझे मायूस भी करती नहीं है
यही आदत तिरी अच्छी नहीं है


याद उसे भी एक अधूरा अफ़्साना तो होगा
कल रस्ते में उस ने हम को पहचाना तो होगा


तुम ये कहते हो कि मैं ग़ैर हूँ फिर भी शायद
निकल आए कोई पहचान ज़रा देख तो लो


यही हालात इब्तिदा से रहे
लोग हम से ख़फ़ा ख़फ़ा से रहे


मैं बचपन में खिलौने तोड़ता था
मिरे अंजाम की वो इब्तिदा थी


सब का ख़ुशी से फ़ासला एक क़दम है
हर घर में बस एक ही कमरा कम है


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By: Javed Akhtar

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