शेर

जिगर मुरादाबादी के चुनिंदा शेर

Published by
Jigar Moradabadi

मैं तो जब मानूँ मिरी तौबा के बाद
कर के मजबूर पिला दे साक़ी


जान ही दे दी ‘जिगर’ ने आज पा-ए-यार पर
उम्र भर की बे-क़रारी को क़रार आ ही गया


काम आख़िर जज़्बा-ए-बे-इख़्तियार आ ही गया
दिल कुछ इस सूरत से तड़पा उन को प्यार आ ही गया


इश्क़ पर कुछ न चला दीदा-ए-तर का क़ाबू
उस ने जो आग लगा दी वो बुझाई न गई


अहबाब मुझ से क़त-ए-तअल्लुक़ करें ‘जिगर’
अब आफ़्ताब-ए-ज़ीस्त लब-ए-बाम आ गया


वो चीज़ कहते हैं फ़िरदौस-ए-गुमशुदा जिस को
कभी कभी तिरी आँखों में पाई जाती है


बन जाऊँ न बेगाना-ए-आदाब-ए-मोहब्बत
इतना न क़रीब आओ मुनासिब तो यही है


ग़र्क़ कर दे तुझ को ज़ाहिद तेरी दुनिया को ख़राब
कम से कम इतनी तो हर मय-कश के पैमाने में है


ये मिस्रा काश नक़्श-ए-हर-दर-ओ-दीवार हो जाए
जिसे जीना हो मरने के लिए तय्यार हो जाए


जिस दिल को तुम ने लुत्फ़ से अपना बना लिया
उस दिल में इक छुपा हुआ नश्तर ज़रूर था


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