पहला पानी गिरा गगन से
उमड़ा आतुर प्यार,
हवा हुई, ठण्डे दिमाग के जैसे खुले विचार।
भीगी भूमि-भवानी, भीगी समय-सिंह की देह,
भीगा अनभीगे अंगों की
अमराई का नेह
पात-पात की पाती भीगी-पेड़-पेड़ की डाल,
भीगी-भीगी बल खाती है
गैल-छैल की चाल।
प्राण-प्राणमय हुआ परेवा, भीतर बैठा, जीव,
भोग रहा है
द्रवीभूत प्राकृत आनन्द अतीव।
रूप-सिन्धु की
लहरें उठती,
खुल-खुल जाते अंग,
परस-परस
घुल-मिल जाते हैं
उनके-मेरे रंग।
नाच-नाच
उठती है दामिने
चिहुँक-चिहुँक चहुँ ओर
वर्षा-मंगल की ऐसी है भीगी रसमय भोर।
मैं भीगा,
मेरे भीतर का भीगा गंथिल ज्ञान,
भावों की भाषा गाती है
जग जीवन का गान।