सबक़ मिला है ये मेराज-ए-मुस्तफ़ा से मुझे
कि आलम-ए-बशरीयत की ज़द में है गर्दूं
ज़माना अक़्ल को समझा हुआ है मिशअल-ए-राह
किसे ख़बर कि जुनूँ भी है साहिब-ए-इदराक
सितारा क्या मिरी तक़दीर की ख़बर देगा
वो ख़ुद फ़राख़ी-ए-अफ़्लाक में है ख़्वार ओ ज़ुबूँ
हुई न आम जहाँ में कभी हुकूमत-ए-इश्क़
सबब ये है कि मोहब्बत ज़माना-साज़ नहीं
मन की दौलत हाथ आती है तो फिर जाती नहीं
तन की दौलत छाँव है आता है धन जाता है धन
ख़ुदी वो बहर है जिस का कोई किनारा नहीं
तू आबजू इसे समझा अगर तो चारा नहीं
गुज़र जा अक़्ल से आगे कि ये नूर
चराग़-ए-राह है मंज़िल नहीं है!
समुंदर से मिले प्यासे को शबनम
बख़ीली है ये रज़्ज़ाक़ी नहीं है
वो हर्फ़-ए-राज़ कि मुझ को सिखा गया है जुनूँ
ख़ुदा मुझे नफ़स-ए-जिबरईल दे तो कहूँ
रोज़-ए-हिसाब जब मिरा पेश हो दफ़्तर-ए-अमल
आप भी शर्मसार हो मुझ को भी शर्मसार कर