ये सच है रंग बदलता था वो हर इक लम्हा
मगर वही तो बहुत कामयाब चेहरा था
मेरा कर्ब मिरी तन्हाई की ज़ीनत
मैं चेहरों के जंगल का सन्नाटा हूँ
जाने क्या सोच के फिर इन को रिहाई दे दी
हम ने अब के भी परिंदों को तह-ए-दाम किया
हर इक नदी से कड़ी प्यास ले के वो गुज़रा
ये और बात कि वो ख़ुद भी एक दरिया था
बाहर सारे मैदाँ जीत चुका था वो
घर लौटा तो पल भर में ही टूटा था
इक शफ़्फ़ाफ़ तबीअत वाला सहराई
शहर में रह कर किस दर्जा चालाक हुआ
जान देने का हुनर हर शख़्स को आता नहीं
सोहनी के हाथ में कच्चा घड़ा था देखते
आम के पेड़ों के सारे फल सुनहरे हो गए
इस बरस भी रास्ता क्यूँ रो रहा था देखते
चेहरों पे ज़र-पोश अंधेरे फैले हैं
अब जीने के ढंग बड़े ही महँगे हैं
जाने क्या बरसा था रात चराग़ों से
भोर समय सूरज भी पानी पानी है