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अमीर मीनाई के चुनिंदा शेर

कश्तियाँ सब की किनारे पे पहुँच जाती हैं
नाख़ुदा जिन का नहीं उन का ख़ुदा होता है


तुम को आता है प्यार पर ग़ुस्सा
मुझ को ग़ुस्से पे प्यार आता है


वस्ल का दिन और इतना मुख़्तसर
दिन गिने जाते थे इस दिन के लिए


उल्फ़त में बराबर है वफ़ा हो कि जफ़ा हो
हर बात में लज़्ज़त है अगर दिल में मज़ा हो


गाहे गाहे की मुलाक़ात ही अच्छी है ‘अमीर’
क़द्र खो देता है हर रोज़ का आना जाना


ख़ंजर चले किसी पे तड़पते हैं हम ‘अमीर’
सारे जहाँ का दर्द हमारे जिगर में है


आफ़त तो है वो नाज़ भी अंदाज़ भी लेकिन
मरता हूँ मैं जिस पर वो अदा और ही कुछ है


कौन सी जा है जहाँ जल्वा-ए-माशूक़ नहीं
शौक़-ए-दीदार अगर है तो नज़र पैदा कर


तीर खाने की हवस है तो जिगर पैदा कर
सरफ़रोशी की तमन्ना है तो सर पैदा कर


हुए नामवर बे-निशाँ कैसे कैसे
ज़मीं खा गई आसमाँ कैसे कैसे


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By: Ameer Minai

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