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अमीर मीनाई के चुनिंदा शेर

अभी कमसिन हैं ज़िदें भी हैं निराली उन की
इस पे मचले हैं कि हम दर्द-ए-जिगर देखेंगे


आशिक़ का बाँकपन न गया बाद-ए-मर्ग भी
तख़्ते पे ग़ुस्ल के जो लिटाया अकड़ गया


देख ले बुलबुल ओ परवाना की बेताबी को
हिज्र अच्छा न हसीनों का विसाल अच्छा है


बातें नासेह की सुनीं यार के नज़्ज़ारे किए
आँखें जन्नत में रहीं कान जहन्नम में रहे


पुतलियाँ तक भी तो फिर जाती हैं देखो दम-ए-नज़अ
वक़्त पड़ता है तो सब आँख चुरा जाते हैं


पहले तो मुझे कहा निकालो
फिर बोले ग़रीब है बुला लो


अपनी महफ़िल से अबस हम को उठाते हैं हुज़ूर
चुपके बैठे हैं अलग आप का क्या लेते हैं


बाग़बाँ कलियाँ हों हल्के रंग की
भेजनी हैं एक कम-सिन के लिए


कहते हो कि हमदर्द किसी का नहीं सुनते
मैं ने तो रक़ीबों से सुना और ही कुछ है


न वाइज़ हज्व कर एक दिन दुनिया से जाना है
अरे मुँह साक़ी-ए-कौसर को भी आख़िर दिखाना है


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By: Ameer Minai

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