काबा भी हम गए न गया पर बुतों का इश्क़
इस दर्द की ख़ुदा के भी घर में दवा नहीं
गर्द उड़ी आशिक़ की तुर्बत से तो झुँझला कर कहा
वाह सर चढ़ने लगी पाँव की ठुकराई हुई
वस्ल में ख़ाली हुई ग़ैर से महफ़िल तो क्या
शर्म भी जाए तो मैं जानूँ कि तन्हाई हुई
हम जो पहुँचे तो लब-ए-गोर से आई ये सदा
आइए आइए हज़रत बहुत आज़ाद रहे
ख़ून-ए-नाहक़ कहीं छुपता है छुपाए से ‘अमीर’
क्यूँ मिरी लाश पे बैठे हैं वो दामन डाले
छेड़ देखो मिरी मय्यत पे जो आए तो कहा
तुम वफ़ादारों में हो या मैं वफ़ादारों में हूँ
ये कहूँगा ये कहूँगा ये अभी कहते हो
सामने उन के भी जब हज़रत-ए-दिल याद रहे
मौक़ूफ़ जुर्म ही पे करम का ज़ुहूर था
बंदे अगर क़ुसूर न करते क़ुसूर था
आए बुत-ख़ाने से काबे को तो क्या भर पाया
जा पड़े थे तो वहीं हम को पड़ा रहना था
हिलाल ओ बद्र दोनों में ‘अमीर’ उन की तजल्ली है
ये ख़ाका है जवानी का वो नक़्शा है लड़कपन का