हाथ रख कर मेरे सीने पे जिगर थाम लिया
तुम ने इस वक़्त तो गिरता हुआ घर थाम लिया
मिली है दुख़्तर-ए-रज़ लड़-झगड़ के क़ाज़ी से
जिहाद कर के जो औरत मिले हराम नहीं
वाए क़िस्मत वो भी कहते हैं बुरा
हम बुरे सब से हुए जिन के लिए
मिला कर ख़ाक में भी हाए शर्म उन की नहीं जाती
निगह नीची किए वो सामने मदफ़न के बैठे हैं
सादा समझो न इन्हें रहने दो दीवाँ में ‘अमीर’
यही अशआर ज़बानों पे हैं रहने वाले
वही रह जाते हैं ज़बानों पर
शेर जो इंतिख़ाब होते हैं
गिरह से कुछ नहीं जाता है पी भी ले ज़ाहिद
मिले जो मुफ़्त तो क़ाज़ी को भी हराम नहीं
सीधी निगाह में तिरी हैं तीर के ख़्वास
तिरछी ज़रा हुई तो हैं शमशीर के ख़्वास
ख़्वाब में आँखें जो तलवों से मलीं
बोले उफ़ उफ़ पाँव मेरा छिल गया
तूल-ए-शब-ए-फ़िराक़ का क़िस्सा न पूछिए
महशर तलक कहूँ मैं अगर मुख़्तसर कहूँ