ये भी इक बात है अदावत की
रोज़ा रक्खा जो हम ने दावत की
तेरी मस्जिद में वाइज़ ख़ास हैं औक़ात रहमत के
हमारे मय-कदे में रात दिन रहमत बरसती है
है जवानी ख़ुद जवानी का सिंगार
सादगी गहना है इस सिन के लिए
ज़ब्त देखो उधर निगाह न की
मर गए मरते मरते आह न की
किस ढिटाई से वो दिल छीन के कहते हैं ‘अमीर’
वो मिरा घर है रहे जिस में मोहब्बत मेरी
लुत्फ़ आने लगा जफ़ाओं में
वो कहीं मेहरबाँ न हो जाए
पहलू में मेरे दिल को न ऐ दर्द कर तलाश
मुद्दत हुई ग़रीब वतन से निकल गया
अच्छे ईसा हो मरीज़ों का ख़याल अच्छा है
हम मरे जाते हैं तुम कहते हो हाल अच्छा है
करता मैं दर्दमंद तबीबों से क्या रुजूअ
जिस ने दिया था दर्द बड़ा वो हकीम था
क़रीब है यारो रोज़-ए-महशर छुपेगा कुश्तों का ख़ून क्यूँकर
जो चुप रहेगी ज़बान-ए-ख़ंजर लहू पुकारेगा आस्तीं का