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अमीर मीनाई के चुनिंदा शेर

तवक़्क़ो’ है धोके में आ कर वह पढ़ लें
कि लिक्खा है नामा उन्हें ख़त बदल कर


ख़ुशामद ऐ दिल-ए-बेताब इस तस्वीर की कब तक
ये बोला चाहती है पर न बोलेगी न बोली है


बरहमन दैर से काबे से फिर आए हाजी
तेरे दर से न सरकना था न सरके आशिक़


शैख़ कहता है बरहमन को बरहमन उस को सख़्त
काबा ओ बुत-ख़ाना में पत्थर है पत्थर का जवाब


सारा पर्दा है दुई का जो ये पर्दा उठ जाए
गर्दन-ए-शैख़ में ज़ुन्नार बरहमन डाले


रास्ते और तवाज़ो’ में है रब्त-ए-क़ल्बी
जिस तरह लाम अलिफ़ में है अलिफ़ लाम में है


फ़ुर्क़त में मुँह लपेटे मैं इस तरह पड़ा हूँ
जिस तरह कोई मुर्दा लिपटा हुआ कफ़न में


है वसिय्यत कि कफ़न मुझ को इसी का देना
हाथ आ जाए जो उतरा हुआ पैराहन-ए-दोस्त


जिस ग़ुंचा-लब को छेड़ दिया ख़ंदा-ज़न हुआ
जिस गुल पे हम ने रंग जमाया चमन हुआ


काबा-ए-रुख़ की तरफ़ पढ़नी है आँखों से नमाज़
चाहिए गर्द-ए-नज़र बहर-ए-तयम्मुम मुझ को


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By: Ameer Minai

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