आबरू शर्त है इंसाँ के लिए दुनिया में
न रही आब जो बाक़ी तो है गौहर पत्थर
शब-ए-विसाल बहुत कम है आसमाँ से कहो
कि जोड़ दे कोई टुकड़ा शब-ए-जुदाई का
सौ शेर एक जलसे में कहते थे हम ‘अमीर’
जब तक न शेर कहने का हम को शुऊर था
वो फूल सर चढ़ा जो चमन से निकल गया
इज़्ज़त उसे मिली जो वतन से निकल गया
शाख़ों से बर्ग-ए-गुल नहीं झड़ते हैं बाग़ में
ज़ेवर उतर रहा है उरूस-ए-बहार का
अल्लाह-री नज़ाकत-ए-जानाँ कि शेर में
मज़मूँ बंधा कमर का तो दर्द-ए-कमर हुआ
रहा ख़्वाब में उन से शब भर विसाल
मिरे बख़्त जागे मैं सोया किया
सब हसीं हैं ज़ाहिदों को ना-पसंद
अब कोई हूर आएगी उन के लिए
ज़ाहिद उमीद-ए-रहमत-ए-हक़ और हज्व-ए-मय
पहले शराब पी के गुनाह-गार भी तो हो
पूछा न जाएगा जो वतन से निकल गया
बे-कार है जो दाँत दहन से निकल गया