शेर

नासिर काज़मी के चुनिंदा शेर

Published by
Nasir Kazmi

जुर्म-ए-उम्मीद की सज़ा ही दे
मेरे हक़ में भी कुछ सुना ही दे


यूँ तो हर शख़्स अकेला है भरी दुनिया में
फिर भी हर दल के मुक़द्दर में नहीं तन्हाई


आँच आती है तिरे जिस्म की उर्यानी से
पैरहन है कि सुलगती हुई शब है कोई


वो रात का बे-नवा मुसाफ़िर वो तेरा शाइर वो तेरा ‘नासिर’
तिरी गली तक तो हम ने देखा था फिर न जाने किधर गया वो


अकेले घर से पूछती है बे-कसी
तिरा दिया जलाने वाले क्या हुए


न अब वो यादों का चढ़ता दरिया न फ़ुर्सतों की उदास बरखा
यूँही ज़रा सी कसक है दिल में जो ज़ख़्म गहरा था भर गया वो


तिरे फ़िराक़ की रातें कभी न भूलेंगी
मज़े मिले उन्हीं रातों में उम्र भर के मुझे


कभी ज़ुल्फ़ों की घटा ने घेरा
कभी आँखों की चमक याद आई


मुझे तो ख़ैर वतन छोड़ कर अमाँ न मिली
वतन भी मुझ से ग़रीब-उल-वतन को तरसेगा


मुद्दत से कोई आया न गया सुनसान पड़ी है घर की फ़ज़ा
इन ख़ाली कमरों में ‘नासिर’ अब शम्अ जलाऊँ किस के लिए


693

Page: 1 2 3 4 5 6 7 8

Published by
Nasir Kazmi