शोर बरपा है ख़ाना-ए-दिल में
कोई दीवार सी गिरी है अभी
सो गए लोग उस हवेली के
एक खिड़की मगर खुली है अभी
मैं हूँ रात का एक बजा है
ख़ाली रस्ता बोल रहा है
ज़िंदगी जिन के तसव्वुर से जिला पाती थी
हाए क्या लोग थे जो दाम-ए-अजल में आए
ये आप हम तो बोझ हैं ज़मीन का
ज़मीं का बोझ उठाने वाले क्या हुए
गिरफ़्ता-दिल हैं बहुत आज तेरे दीवाने
ख़ुदा करे कोई तेरे सिवा न पहचाने
मैं इस जानिब तू उस जानिब
बीच में पत्थर का दरिया था
हँसता पानी रोता पानी
मुझ को आवाज़ें देता था
कहते हैं ग़ज़ल क़ाफ़िया-पैमाई है ‘नासिर’
ये क़ाफ़िया-पैमाई ज़रा कर के तो देखो
रह-नवर्द-ए-बयाबान-ए-ग़म सब्र कर सब्र कर
कारवाँ फिर मिलेंगे बहम सब्र कर सब्र कर