पलट सकूँ ही न आगे ही बढ़ सकूँ जिस पर
मुझे ये कौन से रस्ते लगा गया इक शख़्स
फिर इस तरह कभी सोया न इस तरह जागा
कि रूह नींद में थी और जागता था मैं
कोई और तो नहीं है पस-ए-ख़ंजर-आज़माई
हमीं क़त्ल हो रहे हैं हमीं क़त्ल कर रहे हैं
सुख़न में सहल नहीं जाँ निकाल कर रखना
ये ज़िंदगी है हमारी सँभाल कर रखना
आओ तुम ही करो मसीहाई
अब बहलती नहीं है तन्हाई
बाहर का धन आता जाता असल ख़ज़ाना घर में है
हर धूप में जो मुझे साया दे वो सच्चा साया घर में है
हज़ार राह चले फिर वो रहगुज़र आई
कि इक सफ़र में रहे और हर सफ़र से गए
ऐ मेरे ख़्वाब आ मिरी आँखों को रंग दे
ऐ मेरी रौशनी तू मुझे रास्ता दिखा
शायद कि ख़ुदा में और मुझ में
इक जस्त का और फ़ासला है
बोले नहीं वो हर्फ़ जो ईमान में न थे
लिक्खी नहीं वो बात जो अपनी नहीं थी बात