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उबैदुल्लाह अलीम के चुनिंदा शेर

शायद इस राह पे कुछ और भी राही आएँ
धूप में चलता रहूँ साए बिछाए जाऊँ


दरूद पढ़ते हुए उस की दीद को निकलें
तो सुब्ह फूल बिछाए सबा हमारे लिए


तू बू-ए-गुल है और परेशाँ हुआ हूँ मैं
दोनों में एक रिश्ता-ए-आवारगी तो है


अहल-ए-दिल के दरमियाँ थे ‘मीर’ तुम
अब सुख़न है शोबदा-कारों के बीच


ख़ुर्शीद मिसाल शख़्स कल शाम
मिट्टी के सुपुर्द कर दिया है


कल मातम बे-क़ीमत होगा आज उन की तौक़ीर करो
देखो ख़ून-ए-जिगर से क्या क्या लिखते हैं अफ़्साने लोग


सुब्ह-ए-चमन में एक यही आफ़्ताब था
इस आदमी की लाश को एज़ाज़ से उठा


जब मिला हुस्न भी हरजाई तो उस बज़्म से हम
इश्क़-ए-आवारा को बेताब उठा कर ले आए


उबैदुल्लाह अलीम के शेर

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By: Obaidullah Aleem

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