शेर

ताबाँ अब्दुल हई के चुनिंदा शेर

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Taban Abdul Hai

आता नहीं वो यार-ए-सितमगर तो क्या हुआ
कोई ग़म तो उस का दिल से हमारे जुदा नहीं


है क्या सबब कि यार न आया ख़बर के तईं
शायद किसी ने हाल हमारा कहा नहीं


मुझे आता है रोना ऐसी तन्हाई पे ऐ ‘ताबाँ’
न यार अपना न दिल अपना न तन अपना न जाँ अपना


इन बुतों को तो मिरे साथ मोहब्बत होती
काश बनता मैं बरहमन ही मुसलमाँ के एवज़


क़िस्मत में क्या है देखें जीते बचें कि मर जाएँ
क़ातिल से अब तो हम ने आँखें लड़ाइयाँ हैं


करता है गर तू बुत-शिकनी तो समझ के कर
शायद कि उन के पर्दे में ज़ाहिद ख़ुदा भी हो


दिल की हसरत न रही दिल में मिरे कुछ बाक़ी
एक ही तेग़ लगा ऐसी ऐ जल्लाद कि बस


वो तो सुनता नहीं किसी की बात
उस से मैं हाल क्या कहूँ ‘ताबाँ’


न जा वाइज़ की बातों पर हमेशा मय को पी ‘ताबाँ’
अबस डरता है तू दोज़ख़ से इक शरई दरक्का है


रिंद वाइज़ से क्यूँ कि सरबर हो
उस की छू, की किताब और ही है


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