loader image

ज़फ़र गोरखपुरी के चुनिंदा शेर

समुंदर ले गया हम से वो सारी सीपियाँ वापस
जिन्हें हम जमअ कर के इक ख़ज़ाना करने वाले थे


ख़त लिख के कभी और कभी ख़त को जला कर
तंहाई को रंगीन बना क्यूँ नहीं लेते


शजर के क़त्ल में इस का भी हाथ है शायद
बता रहा है ये बाद-ए-सबा का चुप रहना


कोई आँखों के शोले पोंछने वाला नहीं होगा
‘ज़फ़र’ साहब ये गीली आस्तीं ही काम आएगी


तंहाई को घर से रुख़्सत कर तो दो
सोचो किस के घर जाएगी तंहाई


फ़लक ने भी न ठिकाना कहीं दिया हम को
मकाँ की नीव ज़मीं से हटा के रक्खी थी


ज़ेहनों की कहीं जंग कहीं ज़ात का टकराव
इन सब का सबब एक मफ़ादात का टकराव


शायद अब तक मुझ में कोई घोंसला आबाद है
घर में ये चिड़ियों की चहकारें कहाँ से आ गईं


उसे ठहरा सको इतनी भी तो वुसअत नहीं घर में
ये सब कुछ जान कर आवारगी से चाहते क्या हो


नहीं मालूम आख़िर किस ने किस को थाम रक्खा है
वो मुझ में गुम है और मेरे दर ओ दीवार गुम उस में


987

Add Comment

By: Zafar Gorakhpuri

© 2023 पोथी | सर्वाधिकार सुरक्षित

Do not copy, Please support by sharing!