समुंदर ले गया हम से वो सारी सीपियाँ वापस
जिन्हें हम जमअ कर के इक ख़ज़ाना करने वाले थे
ख़त लिख के कभी और कभी ख़त को जला कर
तंहाई को रंगीन बना क्यूँ नहीं लेते
शजर के क़त्ल में इस का भी हाथ है शायद
बता रहा है ये बाद-ए-सबा का चुप रहना
कोई आँखों के शोले पोंछने वाला नहीं होगा
‘ज़फ़र’ साहब ये गीली आस्तीं ही काम आएगी
तंहाई को घर से रुख़्सत कर तो दो
सोचो किस के घर जाएगी तंहाई
फ़लक ने भी न ठिकाना कहीं दिया हम को
मकाँ की नीव ज़मीं से हटा के रक्खी थी
ज़ेहनों की कहीं जंग कहीं ज़ात का टकराव
इन सब का सबब एक मफ़ादात का टकराव
शायद अब तक मुझ में कोई घोंसला आबाद है
घर में ये चिड़ियों की चहकारें कहाँ से आ गईं
उसे ठहरा सको इतनी भी तो वुसअत नहीं घर में
ये सब कुछ जान कर आवारगी से चाहते क्या हो
नहीं मालूम आख़िर किस ने किस को थाम रक्खा है
वो मुझ में गुम है और मेरे दर ओ दीवार गुम उस में