यूँ आओ मिरे पहलू में तुम घर से निकल कर
बू आती है जिस तरह गुल-ए-तर से निकल कर
तल्ख़ कहते थे लो अब पी के तो बोलो ज़ाहिद
हाथ आए इधर उस्ताद मज़ा है कि नहीं
जो चश्म-ए-दिल-रुबा के वस्फ़ में अशआ’र लिखता हूँ
तो हर हर लफ़्ज़ पर अहल-ए-नज़र इक साद करते हैं
बोल उठती कभी चिड़िया जो तिरी अंगिया की
ख़ुश-नवाई की न यूँ जीतती बुलबुल पाली
सैल-ए-गिर्या की बदौलत ये हुआ घर का हाल
ख़ाक तक भी न मिली बहर-ए-तयम्मुम मुझ को
सब कुछ है और कुछ भी नहीं दहर का वजूद
‘कैफ़ी’ ये बात वो है मुअम्मा कहें जिसे
उक़्दा-ए-क़िस्मत नहीं खुलता मिरा
ये भी तिरा बंद-ए-क़बा हो गया
ढूँढने से यूँ तो इस दुनिया में क्या मिलता नहीं
सच अगर पूछो तो सच्चा आश्ना मिलता नहीं
कहने को तो कह गए हो सब कुछ
अब कोई जवाब दे तो क्या हो
या इलाही मुझ को ये क्या हो गया
दोस्ती का तेरी सौदा हो गया