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दत्तात्रिया कैफ़ी के चुनिंदा शेर

हाल-ए-दिल लिखते न लोगों की ज़बाँ में पड़ते
वज्ह-ए-अंगुश्त-नुमाई ये क़लम है हम को


तुम से अब क्या कहें वो चीज़ है दाग़-ए-ग़म-ए-इश्क़
कि छुपाए न छुपे और दिखाए न बने


रहने दे ज़िक्र-ए-ख़म-ए-ज़ुल्फ़-ए-मुसलसल को नदीम
उस के तो ध्यान से भी होता है दिल को उलझाओ


वुज़ू होता है याँ तो शैख़ उसी आब-ए-गुलाबी से
तयम्मुम के लिए तुम ख़ाक जा कर दश्त में फाँको


दम ग़नीमत है सालिको मेरा
जरस-ए-दौर की सदा हूँ मैं


ख़बर किसे सुब्ह-ओ-शाम की है तअ’ईनात और क़ुयूद कैसे
नमाज़ किस की वहाँ किसी को ख़याल तक भी नहीं वुज़ू का


मो’जिज़ा हज़रत-ए-ईसा का था बे-शुबह दुरुस्त
कि मैं दुनिया से गया उठ जो कहा क़ुम मुझ को


शम्अ’-रूयों की मोहब्बत का जो दम भरते हैं
एक मुद्दत वो अभी बैअ’त-ए-परवाना करें


है अक्स-ए-आइना दिल में किसी बिलक़ीस-ए-सानी का
तसव्वुर है मिरा उस्ताद बहज़ाद और मानी का


बादबानों में भरी है इस के क्या बाद-ए-नफ़स
कश्ती-ए-उम्र-ए-रवाँ को ताब लंगर की नहीं


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By: Dattatreya Kaifi

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