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दुष्यंत कुमार के चुनिंदा शेर

लहू-लुहान नज़ारों का ज़िक्र आया तो
शरीफ़ लोग उठे दूर जा के बैठ गए


मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूँ
वो ग़ज़ल आप को सुनाता हूँ


नज़र-नवाज़ नज़ारा बदल न जाए कहीं
ज़रा सी बात है मुँह से निकल न जाए कहीं


वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है
माथे पे उस के चोट का गहरा निशान है


न हो क़मीज़ तो पाँव से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए


अब तो इस तालाब का पानी बदल दो
ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं


ये सोच कर कि दरख़्तों में छाँव होती है
यहाँ बबूल के साए में आ के बैठ गए


एक क़ब्रिस्तान में घर मिल रहा है
जिस में तह-ख़ानों से तह-ख़ाने लगे हैं


ये लोग होमो-हवन में यक़ीन रखते हैं
चलो यहाँ से चलें हाथ जल न जाए कहीं


मस्लहत-आमेज़ होते हैं सियासत के क़दम
तू न समझेगा सियासत तू अभी नादान है


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By: Dushyant Kumar

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