ऐ सोज़-ए-इश्क़ तू ने मुझे क्या बना दिया
मेरी हर एक साँस मुनाजात हो गई
कहो तो अर्ज़ करें मान लो तो क्या कहना
तुम्हारे पास हम आए हैं इक ज़रूरत से
वो रातों-रात ‘सिरी-कृष्ण’ को उठाए हुए
बला की क़ैद से ‘बसदेव’ का निकल जाना
फ़रेब-ए-अहद-ए-मोहब्बत की सादगी की क़सम
वो झूट बोल कि सच को भी प्यार आ जाए
तिरे पहलू में क्यूँ होता है महसूस
कि तुझ से दूर होता जा रहा हूँ
रफ़्ता रफ़्ता ग़ैर अपनी ही नज़र में हो गए
वाह-री ग़फ़लत तुझे अपना समझ बैठे थे हम
बहसें छिड़ी हुई हैं हयात ओ ममात की
सौ बात बन गई है ‘फ़िराक़’ एक बात की
जिन की ता’मीर इश्क़ करता है
कौन रहता है उन मकानों में
दुनिया थी रहगुज़र तो क़दम मारना था सहल
मंज़िल हुई तो पाँव की ज़ंजीर हो गई
इस दौर में ज़िंदगी बशर की
बीमार की रात हो गई है