शेर

फ़िराक़ गोरखपुरी के चुनिंदा शेर

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Firaq Gorakhpuri

क़ुर्ब ही कम है न दूरी ही ज़ियादा लेकिन
आज वो रब्त का एहसास कहाँ है कि जो था


ये ज़िल्लत-ए-इश्क़ तेरे हाथों
ऐ दोस्त तुझे कहाँ छुपा लें


आँख चुरा रहा हूँ मैं अपने ही शौक़-ए-दीद से
जल्वा-ए-हुस्न-ए-बे-पनाह तू ने ये क्या दिखा दिया


फ़ज़ा तबस्सुम-ए-सुब्ह-ए-बहार थी लेकिन
पहुँच के मंज़िल-ए-जानाँ पे आँख भर आई


थी यूँ तो शाम-ए-हिज्र मगर पिछली रात को
वो दर्द उठा ‘फ़िराक़’ कि मैं मुस्कुरा दिया


मंज़िलें गर्द के मानिंद उड़ी जाती हैं
वही अंदाज़-ए-जहान-ए-गुज़राँ है कि जो था


मेहरबानी को मोहब्बत नहीं कहते ऐ दोस्त
आह अब मुझ से तिरी रंजिश-ए-बेजा भी नहीं


वफ़ूर-ए-बे-ख़ुदी-ए-इश्क़ के रुमूज़ न पूछ
कई दफ़ा तो तिरा नाम भी न याद आया


समझना कम न हम अहल-ए-ज़मीं को
उतरते हैं सहीफ़े आसमाँ से


ये ज़िंदगी के कड़े कोस याद आते हैं
तिरी निगाह-ए-करम का घना घना साया


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