तेरे आने की क्या उमीद मगर
कैसे कह दूँ कि इंतिज़ार नहीं
आए थे हँसते खेलते मय-ख़ाने में ‘फ़िराक़’
जब पी चुके शराब तो संजीदा हो गए
कम से कम मौत से ऐसी मुझे उम्मीद नहीं
ज़िंदगी तू ने तो धोके पे दिया है धोका
अब तो उन की याद भी आती नहीं
कितनी तन्हा हो गईं तन्हाइयाँ
बहुत दिनों में मोहब्बत को ये हुआ मा’लूम
जो तेरे हिज्र में गुज़री वो रात रात हुई
ज़िंदगी क्या है आज इसे ऐ दोस्त
सोच लें और उदास हो जाएँ
जो उन मासूम आँखों ने दिए थे
वो धोके आज तक मैं खा रहा हूँ
ये माना ज़िंदगी है चार दिन की
बहुत होते हैं यारो चार दिन भी
कुछ न पूछो ‘फ़िराक़’ अहद-ए-शबाब
रात है नींद है कहानी है
ज़रा विसाल के बाद आइना तो देख ऐ दोस्त
तिरे जमाल की दोशीज़गी निखर आई