छलक के कम न हो ऐसी कोई शराब नहीं
निगाह-ए-नर्गिस-ए-राना तिरा जवाब नहीं
चुप हो गए तेरे रोने वाले
दुनिया का ख़याल आ गया है
कहाँ इतनी ख़बर उम्र-ए-मोहब्बत किस तरह गुज़री
तिरा ही दर्द था मुझ को जहाँ तक याद आता है
मैं ये तो नहीं कहता कि बशर दावा-ए-ख़ुदाई कर बैठे
फिर भी ग़म-ए-इश्क़ से इंसाँ में कुछ शान-ए-ख़ुदा आ जाती है
कुछ क़फ़स की तीलियों से छन रहा है नूर सा
कुछ फ़ज़ा कुछ हसरत-ए-परवाज़ की बातें करो
रोने वाले हुए चुप हिज्र की दुनिया बदली
शम्अ बे-नूर हुई सुब्ह का तारा निकला
कमी न की तिरे वहशी ने ख़ाक उड़ाने में
जुनूँ का नाम उछलता रहा ज़माने में
क़फ़स वालों की भी क्या ज़िंदगी है
चमन दूर आशियाँ दूर आसमाँ दूर
बे-ख़ुदी में इक ख़लिश सी भी न हो ऐसा नहीं
तू न आए याद लेकिन मैं तुझे भूला नहीं
इश्क़ अब भी है वो महरम-ए-बे-गाना-नुमा
हुस्न यूँ लाख छुपे लाख नुमायाँ हो जाए