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गुलज़ार के चुनिंदा शेर

भरे हैं रात के रेज़े कुछ ऐसे आँखों में
उजाला हो तो हम आँखें झपकते रहते हैं


आँखों से आँसुओं के मरासिम पुराने हैं
मेहमाँ ये घर में आएँ तो चुभता नहीं धुआँ


ये दिल भी दोस्त ज़मीं की तरह
हो जाता है डाँवा-डोल कभी


ये रोटियाँ हैं ये सिक्के हैं और दाएरे हैं
ये एक दूजे को दिन भर पकड़ते रहते हैं


रात गुज़रते शायद थोड़ा वक़्त लगे
धूप उन्डेलो थोड़ी सी पैमाने में


चूल्हे नहीं जलाए कि बस्ती ही जल गई
कुछ रोज़ हो गए हैं अब उठता नहीं धुआँ


यूँ भी इक बार तो होता कि समुंदर बहता
कोई एहसास तो दरिया की अना का होता


काँच के पार तिरे हाथ नज़र आते हैं
काश ख़ुशबू की तरह रंग हिना का होता


आग में क्या क्या जला है शब भर
कितनी ख़ुश-रंग दिखाई दी है


गुलज़ार के शेर


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By: Sampooran Singh Kalra (Gulzar)

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