दुश्मनों ने जो दुश्मनी की है
दोस्तों ने भी क्या कमी की है
दुनिया तो चाहती है यूँही फ़ासले रहें
दुनिया के मश्वरों पे न जा उस गली में चल
लोग डरते हैं दुश्मनी से तिरी
हम तिरी दोस्ती से डरते हैं
तुम से पहले वो जो इक शख़्स यहाँ तख़्त-नशीं था
उस को भी अपने ख़ुदा होने पे इतना ही यक़ीं था
पा सकेंगे न उम्र भर जिस को
जुस्तुजू आज भी उसी की है
उन के आने के बाद भी ‘जालिब’
देर तक उन का इंतिज़ार रहा
एक हमें आवारा कहना कोई बड़ा इल्ज़ाम नहीं
दुनिया वाले दिल वालों को और बहुत कुछ कहते हैं
कुछ और भी हैं काम हमें ऐ ग़म-ए-जानाँ
कब तक कोई उलझी हुई ज़ुल्फ़ों को सँवारे
तू आग में ऐ औरत ज़िंदा भी जली बरसों
साँचे में हर इक ग़म के चुप-चाप ढली बरसों
कुछ लोग ख़यालों से चले जाएँ तो सोएँ
बीते हुए दिन रात न याद आएँ तो सोएँ