नई ख़्वाहिश रचाई जा रही है
तिरी फ़ुर्क़त मनाई जा रही है
अब कि जब जानाना तुम को है सभी पर ए’तिबार
अब तुम्हें जानाना मुझ पर ए’तिबार आया तो क्या
फिर उस गली से अपना गुज़र चाहता है दिल
अब उस गली को कौन सी बस्ती से लाऊँ मैं
मैं सहूँ कर्ब-ए-ज़िंदगी कब तक
रहे आख़िर तिरी कमी कब तक
शाम हुई है यार आए हैं यारों के हमराह चलें
आज वहाँ क़व्वाली होगी ‘जौन’ चलो दरगाह चलें
हम को हरगिज़ नहीं ख़ुदा मंज़ूर
या’नी हम बे-तरह ख़ुदा के हैं
इन लबों का लहू न पी जाऊँ
अपनी तिश्ना-लबी से ख़तरा है
हम अजब हैं कि उस की बाहोँ में
शिकवा-ए-नारसाई करते हैं
मैं बिस्तर-ए-ख़याल पे लेटा हूँ उस के पास
सुब्ह-ए-अज़ल से कोई तक़ाज़ा किए बग़ैर
हुस्न कहता था छेड़ने वाले
छेड़ना ही तो बस नहीं छू भी