हासिल-ए-कुन है ये जहान-ए-ख़राब
यही मुमकिन था इतनी उजलत में
जिस्म में आग लगा दूँ उस के
और फिर ख़ुद ही बुझा दूँ उस को
कल का दिन हाए कल का दिन ऐ ‘जौन’
काश इस रात हम भी मर जाएँ
ख़ूब है शौक़ का ये पहलू भी
मैं भी बर्बाद हो गया तू भी
और क्या चाहती है गर्दिश-ए-अय्याम कि हम
अपना घर भूल गए उन की गली भूल गए
सब से पुर-अम्न वाक़िआ ये है
आदमी आदमी को भूल गया
पड़ी रहने दो इंसानों की लाशें
ज़मीं का बोझ हल्का क्यूँ करें हम
मैं जुर्म का ए’तिराफ़ कर के
कुछ और है जो छुपा गया हूँ
दाद-ओ-तहसीन का ये शोर है क्यूँ
हम तो ख़ुद से कलाम कर रहे हैं
है वो बेचारगी का हाल कि हम
हर किसी को सलाम कर रहे हैं