मैं इस दीवार पर चढ़ तो गया था
उतारे कौन अब दीवार पर से
‘जौन’ दुनिया की चाकरी कर के
तू ने दिल की वो नौकरी क्या की
एक क़त्ताला चाहिए हम को
हम ये एलान-ए-आम कर रहे हैं
किया था अहद जब लम्हों में हम ने
तो सारी उम्र ईफ़ा क्यूँ करें हम
हाए वो उस का मौज-ख़ेज़ बदन
मैं तो प्यासा रहा लब-ए-जू भी
न रखा हम ने बेश-ओ-कम का ख़याल
शौक़ को बे-हिसाब ही लिक्खा
मैं कहूँ किस तरह ये बात उस से
तुझ को जानम मुझी ख़तरा है
शायद वो दिन पहला दिन था पलकें बोझल होने का
मुझ को देखते ही जब उस की अंगड़ाई शर्माई है
ऐ सुब्ह मैं अब कहाँ रहा हूँ
ख़्वाबों ही में सर्फ़ हो चुका हूँ
पूछ न वस्ल का हिसाब हाल है अब बहुत ख़राब
रिश्ता-ए-जिस्म-ओ-जाँ के बीच जिस्म हराम हो गया