कुछ घटता चला जाता है मुझमें
उनके न रहने से जो थे मेरे साथ
मैं क्या कह सकता हूँ उनके बारे में, अब
कुछ भी कहना एक धीमी मौत सहना है।
हे दयालु अकस्मात्
ये मेरे दिन हैं?
या उनकी रात?
मैं हूँ कि मेरी जगह कोई और
कर रहा उनके किये धरे पर ग़ौर?
मैं और मेरी दुनिया, जैसे
कुछ बचा रह गया हो उनका ही
उनके पश्चात्
ऐसा क्या हो सकता है
उनका कृतित्व-
उनका अमरत्व-
उनका मनुष्यत्व-
ऐसा कुछ सान्त्वनीय ऐसा कुछ अर्थवान
जो न हो केवल एक देह का अवसान?
ऐसा क्या कहा जा सकता है
किसी के बारे में
जिसमें न हो उसके न-होने की याद?
सौ साल बाद
परस्पर सहयोग से प्रकाशित एक स्मारिका,
पारंपरिक सौजन्य से आयोजित एक शोकसभा:
किसी पुस्तक की पीठ पर
एक विवर्ण मुखाकृति
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एक अविश्वसनीय मुस्कान!