शेर

मिर्ज़ा ग़ालिब के चुनिंदा शेर

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Mirza Ghalib

मैं ने चाहा था कि अंदोह-ए-वफ़ा से छूटूँ
वो सितमगर मिरे मरने पे भी राज़ी न हुआ


ज़िंदगी यूँ भी गुज़र ही जाती
क्यूँ तिरा राहगुज़र याद आया


बैठा है जो कि साया-ए-दीवार-ए-यार में
फ़रमाँ-रवा-ए-किश्वर-ए-हिन्दुस्तान है


गंजीना-ए-मअ’नी का तिलिस्म उस को समझिए
जो लफ़्ज़ कि ‘ग़ालिब’ मिरे अशआर में आवे


दोनों जहान दे के वो समझे ये ख़ुश रहा
याँ आ पड़ी ये शर्म कि तकरार क्या करें


नज़र लगे न कहीं उस के दस्त-ओ-बाज़ू को
ये लोग क्यूँ मिरे ज़ख़्म-ए-जिगर को देखते हैं


हज़रत-ए-नासेह गर आवें दीदा ओ दिल फ़र्श-ए-राह
कोई मुझ को ये तो समझा दो कि समझाएँगे क्या


उम्र भर का तू ने पैमान-ए-वफ़ा बाँधा तो क्या
उम्र को भी तो नहीं है पाएदारी हाए हाए


मोहब्बत थी चमन से लेकिन अब ये बे-दिमाग़ी है
कि मौज-ए-बू-ए-गुल से नाक में आता है दम मेरा


ताब लाए ही बनेगी ‘ग़ालिब’
वाक़िआ सख़्त है और जान अज़ीज़


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