शेर

मिर्ज़ा ग़ालिब के चुनिंदा शेर

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Mirza Ghalib

ता फिर न इंतिज़ार में नींद आए उम्र भर
आने का अहद कर गए आए जो ख़्वाब में


आतिश-ए-दोज़ख़ में ये गर्मी कहाँ
सोज़-ए-ग़म-हा-ए-निहानी और है


क़त्अ कीजे न तअ’ल्लुक़ हम से
कुछ नहीं है तो अदावत ही सही


तुझ से क़िस्मत में मिरी सूरत-ए-क़ुफ़्ल-ए-अबजद
था लिखा बात के बनते ही जुदा हो जाना


कुछ तो पढ़िए कि लोग कहते हैं
आज ‘ग़ालिब’ ग़ज़ल-सरा न हुआ


हुआ है शह का मुसाहिब फिरे है इतराता
वगरना शहर में ‘ग़ालिब’ की आबरू क्या है


हम कहाँ के दाना थे किस हुनर में यकता थे
बे-सबब हुआ ‘ग़ालिब’ दुश्मन आसमाँ अपना


‘ग़ालिब’-ए-ख़स्ता के बग़ैर कौन से काम बंद हैं
रोइए ज़ार ज़ार क्या कीजिए हाए हाए क्यूँ


न सताइश की तमन्ना न सिले की परवा
गर नहीं हैं मिरे अशआर में मअ’नी न सही


‘ग़ालिब’ न कर हुज़ूर में तू बार बार अर्ज़
ज़ाहिर है तेरा हाल सब उन पर कहे बग़ैर


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