शेर

मिर्ज़ा ग़ालिब के चुनिंदा शेर

Published by
Mirza Ghalib

मैं और बज़्म-ए-मय से यूँ तिश्ना-काम आऊँ
गर मैं ने की थी तौबा साक़ी को क्या हुआ था


अल्लाह रे ज़ौक़-ए-दश्त-नवर्दी कि बाद-ए-मर्ग
हिलते हैं ख़ुद-ब-ख़ुद मिरे अंदर कफ़न के पाँव


दिल को नियाज़-ए-हसरत-ए-दीदार कर चुके
देखा तो हम में ताक़त-ए-दीदार भी नहीं


हूँ गिरफ़्तार-ए-उल्फ़त-ए-सय्याद
वर्ना बाक़ी है ताक़त-ए-परवाज़


ढाँपा कफ़न ने दाग़-ए-उयूब-ए-बरहनगी
मैं वर्ना हर लिबास में नंग-ए-वजूद था


बे-इश्क़ उम्र कट नहीं सकती है और याँ
ताक़त ब-क़दर-ए-लज़्ज़त-ए-आज़ार भी नहीं


है अब इस मामूरे में क़हत-ए-ग़म-ए-उल्फ़त ‘असद’
हम ने ये माना कि दिल्ली में रहें खावेंगे क्या


मैं ने मजनूँ पे लड़कपन में ‘असद’
संग उठाया था कि सर याद आया


शेर ‘ग़ालिब’ का नहीं वही ये तस्लीम मगर
ब-ख़ुदा तुम ही बता दो नहीं लगता इल्हाम


हैराँ हूँ दिल को रोऊँ कि पीटूँ जिगर को मैं
मक़्दूर हो तो साथ रखूँ नौहागर को मैं


984

Page: 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37

Published by
Mirza Ghalib