शेर

मिर्ज़ा ग़ालिब के चुनिंदा शेर

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Mirza Ghalib

जब तवक़्क़ो ही उठ गई ‘ग़ालिब’
क्यूँ किसी का गिला करे कोई


आशिक़ हूँ प माशूक़-फ़रेबी है मिरा काम
मजनूँ को बुरा कहती है लैला मिरे आगे


अपनी गली में मुझ को न कर दफ़्न बाद-ए-क़त्ल
मेरे पते से ख़ल्क़ को क्यूँ तेरा घर मिले


ईमाँ मुझे रोके है जो खींचे है मुझे कुफ़्र
काबा मिरे पीछे है कलीसा मिरे आगे


क्यूँ जल गया न ताब-ए-रुख़-ए-यार देख कर
जलता हूँ अपनी ताक़त-ए-दीदार देख कर


अपनी हस्ती ही से हो जो कुछ हो
आगही गर नहीं ग़फ़लत ही सही


जान दी दी हुई उसी की थी
हक़ तो यूँ है कि हक़ अदा न हुआ


जब कि तुझ बिन नहीं कोई मौजूद
फिर ये हंगामा ऐ ख़ुदा क्या है


दिखा के जुम्बिश-ए-लब ही तमाम कर हम को
न दे जो बोसा तो मुँह से कहीं जवाब तो दे


ये फ़ित्ना आदमी की ख़ाना-वीरानी को क्या कम है
हुए तुम दोस्त जिस के दुश्मन उस का आसमाँ क्यूँ हो


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