घर में था क्या कि तिरा ग़म उसे ग़ारत करता
वो जो रखते थे हम इक हसरत-ए-तामीर सो है
फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया
दिल जिगर तिश्ना-ए-फ़रियाद आया
जो ये कहे कि रेख़्ता क्यूँके हो रश्क-ए-फ़ारसी
गुफ़्ता-ए-‘ग़ालिब’ एक बार पढ़ के उसे सुना कि यूँ
हस्ती के मत फ़रेब में आ जाइयो ‘असद’
आलम तमाम हल्क़ा-ए-दाम-ए-ख़याल है
हुई जिन से तवक़्क़ो ख़स्तगी की दाद पाने की
वो हम से भी ज़ियादा ख़स्ता-ए-तेग़-ए-सितम निकले
है ख़बर गर्म उन के आने की
आज ही घर में बोरिया न हुआ
या रब हमें तो ख़्वाब में भी मत दिखाइयो
ये महशर-ए-ख़याल कि दुनिया कहें जिसे
‘ग़ालिब’ अपना ये अक़ीदा है ब-क़ौल-ए-‘नासिख़’
आप बे-बहरा है जो मो’तक़िद-ए-‘मीर’ नहीं
एक एक क़तरे का मुझे देना पड़ा हिसाब
ख़ून-ए-जिगर वदीअत-ए-मिज़्गान-ए-यार था
बस-कि हूँ ‘ग़ालिब’ असीरी में भी आतिश ज़ेर-ए-पा
मू-ए-आतिश दीदा है हल्क़ा मिरी ज़ंजीर का