तेज़ धूप में आई ऐसी लहर सर्दी की
मोम का हर इक पुतला बच गया पिघलने से
क़तील’ अब दिल की धड़कन बन गई है चाप क़दमों की
कोई मेरी तरफ़ आता हुआ महसूस होता है
तुम आ सको तो शब को बढ़ा दो कुछ और भी
अपने कहे में सुब्ह का तारा है इन दिनों
निकल कर दैर-ओ-काबा से अगर मिलता न बुत-ख़ाना
तो ठुकराए हुए इंसाँ ख़ुदा जाने कहाँ जाते
क़तील अपना मुक़द्दर ग़म से बेगाना अगर होता
तो फिर अपने पराए हम से पहचाने कहाँ जाते
दाद-ए-सफ़र मिली है किसे राह-ए-शौक़ में
हम ने मिटा दिए हैं निशाँ अपने पाँव के
रक़्स करने का मिला हुक्म जो दरियाओं में
हम ने ख़ुश हो के भँवर बाँध लिया पाँव में
ज़िंदगी मैं भी चलूँगा तिरे पीछे पीछे
तू मिरे दोस्त का नक़्श-ए-कफ़-ए-पा हो जाना
मैं घर से तेरी तमन्ना पहन के जब निकलूँ
बरहना शहर में कोई नज़र न आए मुझे
मैं जब ‘क़तील’ अपना सब कुछ लुटा चुका हूँ
अब मेरा प्यार मुझ से दानाई चाहता है