loader image

क़तील शिफ़ाई के चुनिंदा शेर

किस तरह अपनी मोहब्बत की मैं तकमील करूँ
ग़म-ए-हस्ती भी तो शामिल है ग़म-ए-यार के साथ


यूँ बरसती हैं तसव्वुर में पुरानी यादें
जैसे बरसात की रिम-झिम में समाँ होता है


क्यूँ शरीक-ए-ग़म बनाते हो किसी को ऐ ‘क़तील’
अपनी सूली अपने काँधे पर उठाओ चुप रहो


हम उन के सितम को भी करम जान रहे हैं
और वो हैं कि इस पर भी बुरा मान रहे हैं


सुबूत-ए-इश्क़ की ये भी तो एक सूरत है
कि जिस से प्यार करें उस पे तोहमतें भी धरें


दुश्मनी मुझ से किए जा मगर अपना बन कर
जान ले ले मिरी सय्याद मगर प्यार के साथ


ये मो’जिज़ा भी मोहब्बत कभी दिखाए मुझे
कि संग तुझ पे गिरे और ज़ख़्म आए मुझे


अपने हाथों की लकीरों में सजा ले मुझ को
मैं हूँ तेरा तू नसीब अपना बना ले मुझ को


थोड़ी सी और ज़ख़्म को गहराई मिल गई
थोड़ा सा और दर्द का एहसास घट गया


अपनी ज़बाँ तो बंद है तुम ख़ुद ही सोच लो
पड़ता नहीं है यूँही सितम-गर किसी का नाम


986

Add Comment

By: Qateel Shifai

© 2023 पोथी | सर्वाधिकार सुरक्षित

Do not copy, Please support by sharing!