सोच को जुरअत-ए-पर्वाज़ तो मिल लेने दो
ये ज़मीं और हमें तंग दिखाई देगी
यारो ये दौर ज़ोफ़-ए-बसारत का दौर है
आँधी उठे तो उस को घटा कह लिया करो
ब-पास-ए-दिल जिसे अपने लबों से भी छुपाया था
मिरा वो राज़ तेरे हिज्र ने पहुँचा दिया सब तक
न छाँव करने को है वो आँचल न चैन लेने को हैं वो बाँहें
मुसाफ़िरों के क़रीब आ कर हर इक बसेरा पलट गया है