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क़तील शिफ़ाई के चुनिंदा शेर

जो भी आता है बताता है नया कोई इलाज
बट न जाए तिरा बीमार मसीहाओं में


न जाने कौन सी मंज़िल पे आ पहुँचा है प्यार अपना
न हम को ए’तिबार अपना न उन को ए’तिबार अपना


हुस्न को चाँद जवानी को कँवल कहते हैं
उन की सूरत नज़र आए तो ग़ज़ल कहते हैं


हम को आपस में मोहब्बत नहीं करने देते
इक यही ऐब है इस शहर के दानाओं में


जिस बरहमन ने कहा है कि ये साल अच्छा है
उस को दफ़नाओ मिरे हाथ की रेखाओं में


सितम तो ये है कि वो भी न बन सका अपना
क़ुबूल हम ने किए जिस के ग़म ख़ुशी की तरह


मुफ़्लिस के बदन को भी है चादर की ज़रूरत
अब खुल के मज़ारों पे ये एलान किया जाए


राब्ता लाख सही क़ाफ़िला-सालार के साथ
हम को चलना है मगर वक़्त की रफ़्तार के साथ


मैं अपने दिल से निकालूँ ख़याल किस किस का
जो तू नहीं तो कोई और याद आए मुझे


वो तेरी भी तो पहली मोहब्बत न थी ‘क़तील’
फिर क्या हुआ अगर वो भी हरजाई बन गया


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By: Qateel Shifai

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