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बैंक में लड़कियाँ – रघुवीर सहाय की कविता

बैंक में लड़कियाँ
बड़ी होती जाती हैं
और इतनी भीड़ से घिरी हुई एकाकी

वह अपने तीस बरस
औरत और व्यक्ति के बनने के तीस बरस
लिए हुए रोज़ यहाँ आती हैं वक्त से
ध्यान से सुनती है नौज़वान ग्राहक को
खो नहीं जाती हैं स्वप्न में
उस लड़के को कहीं जाने नहीं देती है फ़िलहाल
फिर चला जाता है वह अपने काम से
इस लेनदेन के बाद वह बजाती है एक सुहानी घण्टी
दौड़कर भीड़ भर जाती है छोटे-छोटे पुरूषों की एकांत में
कुटे-पिटे चेहरों पर लालच लिए हुए
खिड़की से झाँकते।

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By: Raghuvir Sahay

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