अपने जलने में किसी को नहीं करते हैं शरीक
रात हो जाए तो हम शम्अ बुझा देते हैं
इक रोज़ छीन लेगी हमीं से ज़मीं हमें
छीनेंगे क्या ज़मीं के ख़ज़ाने ज़मीं से हम
समझेगा आदमी को वहाँ कौन आदमी
बंदा जहाँ ख़ुदा को ख़ुदा मानता नहीं
भीड़ तन्हाइयों का मेला है
आदमी आदमी अकेला है
आप के लब पे और वफ़ा की क़सम
क्या क़सम खाई है ख़ुदा की क़सम
सौ बार जिस को देख के हैरान हो चुके
जी चाहता है फिर उसे इक बार देखना
ग़लत-फ़हमियों में जवानी गुज़ारी
कभी वो न समझे कभी हम न समझे
आप आए हैं सो अब घर में उजाला है बहुत
कहिए जलती रहे या शम्अ बुझा दी जाए
कब तक नजात पाएँगे वहम ओ यक़ीं से हम
उलझे हुए हैं आज भी दुनिया ओ दीं से हम
अच्छा हुआ कि सब दर-ओ-दीवार गिर पड़े
अब रौशनी तो है मिरे घर में हवा तो है