अज़ल से आज तक सज्दे किए और ये नहीं सोचा
किसी का आस्ताँ क्यूँ है किसी का संग-ए-दर क्या है
अभी तो एक वतन छोड़ कर ही निकले हैं
हनूज़ देखनी बाक़ी हैं हिजरतें क्या क्या
रवाँ है क़ाफ़िला-ए-रूह-ए-इलतिफ़ात अभी
हमारी राह से हट जाए काएनात अभी
हवस-परस्त अदीबों पे हद लगे कोई
तबाह करते हैं लफ़्ज़ों की इस्मतें क्या क्या
गए थे नक़्द-ए-गिराँ-माया-ए-ख़ुलूस के साथ
ख़रीद लाए हैं सस्ती अदावतें क्या क्या
जब इश्क़ था तो दिल का उजाला था दहर में
कोई चराग़ नूर-बदामाँ नहीं है अब
पस्ती ने बुलंदी को बनाया है हक़ीक़त
ये रिफ़अत-ए-अफ़्लाक भी मुहताज-ए-ज़मीं है
कुफ़्र ओ इस्लाम के झगड़े को चुका दो साहब
जंग आपस में करें शैख़ ओ बरहमन कब तक
कौन उठाए इश्क़ के अंजाम की जानिब नज़र
कुछ असर बाक़ी हैं अब तक हैरत-ए-आग़ाज़ के
बाल-ओ-पर की जुम्बिशों को काम में लाते रहो
ऐ क़फ़स वालो क़फ़स से छूटना मुश्किल सही