तुझ से बरहम हूँ कभी ख़ुद से ख़फ़ा
कुछ अजब रफ़्तार है तेरे बग़ैर
ग़म-ए-हयात भी आग़ोश-ए-हुस्न-ए-यार में है
ये वो ख़िज़ाँ है जो डूबी हुई बहार में है
ख़ुश हूँ कि मिरा हुस्न-ए-तलब काम तो आया
ख़ाली ही सही मेरी तरफ़ जाम तो आया
वो अगर बुरा न मानें तो जहान-ए-रंग-ओ-बू में
मैं सुकून-ए-दिल की ख़ातिर कोई ढूँड लूँ सहारा
ज़रा नक़ाब-ए-हसीं रुख़ से तुम उलट देना
हम अपने दीदा-ओ-दिल का ग़ुरूर देखेंगे
ग़म-ए-उम्र-ए-मुख़्तसर से अभी बे-ख़बर हैं कलियाँ
न चमन में फेंक देना किसी फूल को मसल कर
‘शकील’ इस दर्जा मायूसी शुरू-ए-इश्क़ में कैसी
अभी तो और होना है ख़राब आहिस्ता आहिस्ता
हर दिल में छुपा है तीर कोई हर पाँव में है ज़ंजीर कोई
पूछे कोई इन से ग़म के मज़े जो प्यार की बातें करते हैं
क्या असर था जज़्बा-ए-ख़ामोश में
ख़ुद वो खिच कर आ गए आग़ोश में
सितम-नवाज़ी-ए-पैहम है इश्क़ की फ़ितरत
फ़ुज़ूल हुस्न पे तोहमत लगाई जाती है