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शकील बदायुनी के चुनिंदा शेर

छुपे हैं लाख हक़ के मरहले गुम-नाम होंटों पर
उसी की बात चल जाती है जिस का नाम चलता है


बे-तअल्लुक़ तिरे आगे से गुज़र जाता है
ये भी इक हुस्न-ए-तलब है तिरे दीवाने का


हर चीज़ नहीं है मरकज़ पर इक ज़र्रा इधर इक ज़र्रा उधर
नफ़रत से न देखो दुश्मन को शायद वो मोहब्बत कर बैठे


दलील-ए-ताबिश-ए-ईमाँ है कुफ़्र का एहसास
चराग़ शाम से पहले जला नहीं करते


ये किस ख़ता पे रूठ गई चश्म-ए-इल्तिफ़ात
ये कब का इंतिक़ाम लिया मुझ ग़रीब से


हाए वो ज़िंदगी की इक साअत
जो तिरी बारगाह में गुज़री


हम से मय-कश जो तौबा कर बैठें
फिर ये कार-ए-सवाब कौन करे


सब करिश्मात-ए-तसव्वुर हैं ‘शकील’
वर्ना आता है न जाता है कोई


रिंद-ए-ख़राब-नोश की बे-अदबी तो देखिए
निय्यत-ए-मय-कशी न की हाथ में जाम ले लिया


लम्हात-ए-याद-ए-यार को सर्फ़-ए-दुआ न कर
आते हैं ज़िंदगी में ये आलम कभी कभी


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By: Shakeel Badayuni

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