शग़ुफ़्तगी-ए-दिल-ए-कारवाँ को क्या समझे
वो इक निगाह जो उलझी हुई बहार में है
बात जब है ग़म के मारों को जिला दे ऐ ‘शकील’
तू ये ज़िंदा मय्यतें मिट्टी में दाब आया तो क्या
उजाले गर्मी-ए-रफ़्तार का ही साथ देते हैं
बसेरा था जहाँ अपना वहीं तक आफ़्ताब आया
सुना है ज़िंदगी वीरानियों ने लूट ली मिल कर
न जाने ज़िंदगी के नाज़-बरदारों पे क्या गुज़री
फिर वही जोहद-ए-मुसलसल फिर वही फ़िक्र-ए-मआश
मंज़िल-ए-जानाँ से कोई कामयाब आया तो क्या
अल्लाह रे बे-ख़ुदी कि हम उन के ही रू-ब-रू
बे-इख़्तियार उन्ही को पुकारे चले गए
मिरी तेज़-गामियों से नहीं बर्क़ को भी निस्बत
कहीं खो न जाए दुनिया मिरे साथ साथ चल कर