इस गुलिस्ताँ में बहुत कलियाँ मुझे तड़पा गईं
क्यूँ लगी थीं शाख़ में क्यूँ बे-खिले मुरझा गईं
तुम नाक चढ़ाते हो मिरी बात पे ऐ शैख़
खींचूँगी किसी रोज़ मैं अब कान तुम्हारे
मैं हूँ क्या चीज़ जो उस तर्ज़ पे जाऊँ ‘अकबर’
‘नासिख़’ ओ ‘ज़ौक़’ भी जब चल न सके ‘मीर’ के साथ
मिरा मोहताज होना तो मिरी हालत से ज़ाहिर है
मगर हाँ देखना है आप का हाजत-रवा होना
कुछ नहीं कार-ए-फ़लक हादसा-पाशी के सिवा
फ़ल्सफ़ा कुछ नहीं अल्फ़ाज़-तराशी के सिवा
सब हो चुके हैं उस बुत-ए-काफ़िर-अदा के साथ
रह जाएँगे रसूल ही बस अब ख़ुदा के साथ
बूट डासन ने बनाया मैं ने इक मज़मूँ लिखा
मुल्क में मज़मूँ न फैला और जूता चल गया
क्या ही रह रह के तबीअ’त मिरी घबराती है
मौत आती है शब-ए-हिज्र न नींद आती है
शैख़ जी घर से न निकले और मुझ से कह दिया
आप बी-ए पास हैं और बंदा बीबी पास है
तिरी ज़ुल्फ़ों में दिल उलझा हुआ है
बला के पेच में आया हुआ है