इन को क्या काम है मुरव्वत से अपनी रुख़ से ये मुँह न मोड़ेंगे
जान शायद फ़रिश्ते छोड़ भी दें डॉक्टर फ़ीस को न छोड़ेंगे
डिनर से तुम को फ़ुर्सत कम यहाँ फ़ाक़े से कम ख़ाली
चलो बस हो चुका मिलना न तुम ख़ाली न हम ख़ाली
यहाँ की औरतों को इल्म की परवा नहीं बे-शक
मगर ये शौहरों से अपने बे-परवा नहीं होतीं
रहमान के फ़रिश्ते गो हैं बहुत मुक़द्दस
शैतान ही की जानिब लेकिन मेजोरिटी है
क्या वो ख़्वाहिश कि जिसे दिल भी समझता हो हक़ीर
आरज़ू वो है जो सीने में रहे नाज़ के साथ
ज़रूरी चीज़ है इक तजरबा भी ज़िंदगानी में
तुझे ये डिग्रियाँ बूढ़ों का हम-सिन कर नहीं सकतीं
फ़लसफ़ी को बहस के अंदर ख़ुदा मिलता नहीं
डोर को सुलझा रहा है और सिरा मिलता नहीं
कुछ इलाहाबाद में सामाँ नहीं बहबूद के
याँ धरा क्या है ब-जुज़ अकबर के और अमरूद के
मेरी ये बेचैनियाँ और उन का कहना नाज़ से
हँस के तुम से बोल तो लेते हैं और हम क्या करें
मरऊब हो गए हैं विलायत से शैख़-जी
अब सिर्फ़ मनअ करते हैं देसी शराब को